यादों में गांव
यादों में गांव
रात यादों में आ गया अचानक मेरे, मेरा गाँव
पगडंडिया वो संकरी सी, वो सुबह वो शाम
वो आँगन घर के बड़े बड़े, वो पीपल की छाँव
कि रात यादों में..।
याद आ गया नानी के हाथ का वो स्वाद
बासी रोटी पर मक्खन वो लाजबाब
वो छप्पर तले बैठकर दोपहर का वक्त काटना
साँझ होते ही सबका वो छत पर भागना
कि रात यादों...।
अहसास उन हवाओं का अचानक होने लगा
स्र्पश कोई जाना पहचाना सा आँखें भिगोने लगा
कानों में घुलने लगी वो मीठी मीठी सी बातें
मामा-मामी की तो कभी नाना नानी की दुलार भरी डाॅटे
कि रात यादों...।
मोर अचानक आँखों के सामने नाचने लगे
कबुतर भी सिरहाने बैठ दाना माँगने लगे
भोर होते ही निकल आये परिदें सब घौसलों से
लम्हे सभी वो पुराने यादों के वो मुझसे माँगने लगे
कि रात यादों ...।
न पाँवों में चप्पल कोई, न सर पर छाते
यॅू ही भागे फिरते थे, जब होती थी बरसाते
कगज की कश्ती के संग सपने सभी बहाते थे
माँ आती थी जब लेने, घर तभी बस जाते थे।
जेबों में होते थे तब नीले पीले कंचों के खजाने
लूट न ले कोई दौलत अपनी,
रख हाथ जेब पे सो जाते थे
वो दिन भी क्या दिन थे बस
फिक्र नहीं थी आने वाले कल की।
आज के हम बस राजा थे
पूरी हुई तो ठीक ख्वाहिशें
नहीं हुई तो नहीं हुई
लौट वहीं फिर मिटी के खिलौनों में खो जाते थे
जाने क्या हो गया अचानक....।
क्यों यादो ने इतना पीछे लाकर मुझको छोड दिया
शहरों की तंग गलियों से निकल मैं गाँव तक आ पहुँची
पल भर में जाने कितना जी गयी मैं वो पल
कि अब तो आँखों ही मे बस गये सभी मेरे संग
कि रात यादो में आ गया अचानक मेरे मेरा गाँव।