हदें अपनी
हदें अपनी
मेरे वश में न बूंदें है न बादल है
नहीं रिमझिम फुहारें हैं।
मेरी आँखों में अक्सर ही
घटा सावन सी छाती है
कभी छम से बरसती है
घुमड़ कर लौट जाती है
सावन सूखता है फिर
कपाती सर्द सी सिहरन
उगलते अग्नि बाणों से
हुआ आहत ये कोमल मन
व्यथाओं की भी सीमा है
कभी मर्यादाओं में रहती
कभी सहमी लजाती है
कभी छम से बरसती है
घुमड़ कर लौट जाती है।