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Preeti Karn

Others

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Preeti Karn

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अंतर्व्यथा

अंतर्व्यथा

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मौन का संकल्प लेकर

विकल मन कैसे न हो 

मृदुल मन के भाव का

अश्रुओं में क्यों


झर रहे अवसाद मन के

पंखुड़ी बिखरी हवा में 

आंधियों का जोर जब है

खुद को कितना और खोयें 

सहज ही लगती कहां है 

कश्तियां जाकर किनारे

पास रहकर मंज़िलों के

चैन से जागे न सोयें


कौन कहता है यहां 

प्रेम की राहें सरल हैं 

देख बादल की व्यथा फिर

क्यों न जी भर आज रोयें.... 


मौन का संकल्प लेकर

विकल मन कैसे संजोयें।। 

 

    


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