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गीले अहसास

गीले अहसास

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बूंदें उतरी हैं धरा पर मन पनीले हो गए हैं

शुष्क सी हिय वीथियों के कोर गीले हो गए हैं

तरु लताऐं दूब फसलें मुस्कुराती हैं हवाएं 

बरस भर तरसे हैं बादल अब रसीले हो गए हैं। 


ढल गए हैं तप्त दिन  झूलती  पुरवाईयाँ भी

तिरछी हो गई धूप किरणें भूलती अमराईयाँ भी

स्नेह सलिला नीर भरकर नैनों में काजल संजोये

बह न जाए प्रीत के अनुबंध ढीले हो गए हैं। 


धवल मन की ज्योत्सना में मर्म उद्धोषित हुए हैं

इस धरा की गर्भ से बादल के मन पोषित हुए हैं 

ओस कण सी बिछ गई मोतियों की श्रृंखलाऐं

जागते हुए नयनों के कण-कण सजीले हो गए हैं। 


पात के मन पर लिखी कितनी हरित नव कल्पना 

पुष्प तज नित कल्प काया मेटती अवधारणा 

काव्य रचता है गगन और स्वपन बुनती है धरा

नदियों के अंतस में पलते स्वप्न नीले हो गए हैं। 


   


  







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