हैप्पी मकर संक्रांति
हैप्पी मकर संक्रांति
मन पतंग बेचैन है, उड़ने को मजबूर !
जितना ढीलो डोर को, जाती उतनी दूर !
मन पतंग जीवन हुआ,रहे न दूर न पास !
मिल जाता है जो जहां,मिले वहीं उल्लास !
बिना पूंछ की उड़ रही, प्यारी एक पतंग !
निज बलबूते पर सदा, जीती उसने जंग !
बडे इरादे ठान कर, गगन उड़ी पतंग !
दोनों कन्नी से सदा,बिखरा देती रंग !
लंबी खींचे डोर को,जब भी उड़े पतंग !
नभ को छू कर आ गया,मनवा बादल संग !
सीधी सादी डोर में,उलझी रही पतंग !
एक कटी दूजी जुड़ी,देखे दुनिया दंग !
बहुत पतंगें उड़ रही, मंजिल है अति दूर !
डोर बराबर साथ है, चलने को मजबूर !
कागज की बनी पतंग !
रंग -बिरंगे उसके अंग !
दूर व्योम में उड़ती है !
इशारों पर वो लड़ती है !
खूब दांव-पेंच दिखलाती !
कटी जो, फिर हाथ न आती !
