हाथों में...
हाथों में...
तुम से सदियों की वफ़ाओं का कोई नाता था
तुम से मिलने की लकीरें थीं मेरे हाथों में
ये हक़ीक़त हैं की होता हैं असर बातों में
तुम भी खुल जाओगे दो चार मुलाकातों में
तेरी यादों ने मुझे घर से निकलने न दिया
और लोग मौसम का मज़ा लें गए बरसातों में
अब न सूरज, न सितारे न शमा और न चाँद हैं l
तुम्हारी बस यादों का सहारा हैं घनी रातों में
क्या हुआ लम्हा न मिला गर गुज़ारने को तेरे साथ
मैं तो खुश ही हुँ साथ तेरे इन ख्वाबों में
मंज़िलें पाकर भी उतनी ख़ुशी न होगी मुझे
तुम अगर मिल जाओ मुझे इन राहों में
गर मैं टूटा भी रहूँ, बिखरा भी
तस्वीर तेरी ही हो उन टूटे काँचों में।