हां कविता की थी मैंने
हां कविता की थी मैंने
हां कविताएं की थी मैंने कभी
अपनी भावनाओं के
क्षितिज पर
खड़े होकर,
तो कभी मन में
उठती वेदनाओं की लहरों पर,
कभी दूर
बादलों के ऊपर
सात आसमानी समुंदरों पर,
कभी रोते मुस्कराते नर्म लवों पर,
कभी उन सिसकियों पर
जो रुकने का नाम नही लेती,
कभी अपनों पर
जो अब पास होते हुए भी
पास नही,
हर उस पर
कविता की मैंने,
और बस चंद सवाल
सीधे उकेर दिए,
जहां प्रश्न भी मेरे थे
और उत्तर भी,
मेरी कविताएं
उड़ती फुदकती
बस खुद में बहती रहती,
ना ख्यालों से उसका कोई वास्ता
ना जहनी सुकून
बस जहां मन होता
वहीं चल पड़ती,
कभी खुद से दूर
अकेले
बस खुद में खोई खोई
सहमी हुई
ना जाने क्यों
सूखी नदी सी
अंदर ही अंदर बहती,
जहां ना शोर है
ना कोई अपनापन,
ना तड़प कोई
ना खिंचाव,
बस सन्नाटा
घोर पसरा हुआ,
और कविता
एक कोने में ठिठकी हुई
अपनों के ख्यालों में
दर्द से तड़पते
मायूस
अकेले
बस सोचती
और सींचती
लम्हों को
अपनी भूली बिसरी यादों में.......