ह से हिन्दू म से मुसलमान
ह से हिन्दू म से मुसलमान
मुसलमान
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, सब मिलकर हैं भाई भाई
ये नारा सुना है बचपन से पर लहू बहते देखा है छुटपन से
इतना अंधकार क्यों है मदरसे या शिक्षालय में
क्या कमी रह गयी रौशनी के पहरेदारों में
पाँचों इन्द्रियाँ जो मेरी कायनात की जिम्मेदार हैं वो बीमार हैं
और इन्ही के हाथों में मेरे समझ की पतवार है
मेरी रूह ने काली रात को चुनौती देना शुरू किया
शब में भी सूरज को निहारना शुरू किया
फिर मंजर, दिल में घोड़े की दौड़ बन गए
पानी की बूंद लार बनकर टपकने लग गए
अब सब कुछ साफ था एक दम साफ
जो हमने नारा लगाया है वो अधूरा है
तुम कहो? क्या ये वाकई पूरा है?
क्योंकि यहां तो
मुसलमान मुसलमान है, हिन्दू हिन्दू है और ईसाई ईसाई है
भाई कह सकते हो पर भाई कहना एक होने का सबूत नहीं है
हरा, नारंगी और सफेद को तिरंगा कह सकते हो
पर एक ही पहिये में सब घूमते हैं ,पहिया इतना मजबूत नहीं है
सर पर पड़े कपड़े को, टोपी साफा या रुमाल कह सकते हो
पर एक विश्वास भर सको बर्तन इतना साबूत नहीं है
त्योहारों की महफिल को मिल बांट कर सजा सकते हो
या फिर तलवार निकाल सकते हो
दुश्मन या दोस्त की परिभाषा भी दे सकते हो
पर कोई भी परिभाषा उस एक तक फलीभूत नहीं है
हमारी एकता की समझ बस यहीं तक सीमित है
जहां रंगों का मिश्रण काला पड़ जाता है
ह से हिन्दू और म से मुसलमान हो जाता है
और सारी तालीम सारा ज्ञान
इस अधकड़े दलदल में आकर फिसल जाता है
एक होना सभी रंगों से बेरंग हो जाना है
धारणाओं के कलेवर से नग्न हो जाना है
यह बहुत आसान है और बहुत कठोर भी
धंसा हुआ और धंसना चाहता है
निकालने वाले खुद फिसल जाता है
बात आगे एक समझ में आती है
और थोड़ी शांति दे जाती है
जब सर से टोपी, साफा और रुमाल उतर जाएगा
सबका अहं मुंडन हो जायेगा
तब हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई का जूता उतार कर
बस इंसान शेष रह जाएगा