गुलमोहर के पेड़
गुलमोहर के पेड़
कॉलेज में सभी की जुबान पर था बस एक विषय,
विजय और शैली का अतिशय और उन्मुक्त प्रणय
कॉलेज के पीछे जो थी एक छोटी पहाड़ी
गुलमोहर के पेड़ पर चिड़िया थी चहचहाती
सूरज के पहली किरण जब अम्बर पर भी
गुलमोहर के फूल जैसे बिखर सी थी जाती
दूर खड़ी साइकिल "शैली यही है' थी बताती
विजय को वाकिंग का सुख यहीं तो थी लाती
दोनो के प्रेम के यह गुलमोहर और उसके खग साक्षी
गुलमोहर के नीचे ही यूँ कट जाये जीवन ऐसे थे आकांक्षी
प्रेम के लंबे प्रहरों का समय क्षण में बीत जाते
प्रेम वार्ताओं का समापन कहाँ निकट पाते
प्रेम मय था सब संसार इनको और कहाँ दिख पाते
प्रेम जैसे ले मानव रूप सब इनमे थे ही पाते
कॉलेज का दौर बीत गया
अब नंगी दुनिया में था प्रवेश
दोनों ने अंततः एक ही शहर में
किया नौकरी का था श्री गणेश
अब दुनिया गुलमोहर सी सुन्दर ना रही
रोज के भागमभाग में कहीं हंसी ना रही
हाथ में आया जो कमबख्त मोबाइल
अब बात करने की फुर्सत भी ना रही
दो कमरों और एक हाल का छोटा सा घर
दो लैपटॉप और दो मोबाइल जहां है रहते
किचन से सूखती सब्जियां जहां अक्सर फेंकी जाती
कूड़े में कुछ डिस्पोजल प्लेट और कप भी है पाते
खाना खाते वक्त भी फोन ही चलता
एक ही जगह रहते हुए भी
दोनों वर्षो पहले कभी कॉलेज में ही मिले थे
शक्ल दोनों की इतनी बदल गई है
सामने होते हुए भी अजनबी जैसे रह रहे थे
शायद हृदय की गुलमोहर की चिड़िया कहीं उड़ गई
घण्टों का बोध ना था वह फुर्सत की बस्ती उजड़ गई
सपने नए ऐसे क्या बुने पुराने सपने कहीं बिखड गई
साथ रहते हैं दो अजनबी अपनत्व कहीं पिछड़ गई
वही साइकिल वहीं गुलमोहर खोजता है इनको
मोबाइल के रिंगटोन मे जैसे कहीं आदमियत दब गयी।