Ghazal No.6 जितने गिरते हैं अश्क उतनी ही मिलती है
Ghazal No.6 जितने गिरते हैं अश्क उतनी ही मिलती है


मिला ही नहीं कभी कोई सिला मुझे मेरे इमाँ का
क्या करूँ वाइ'ज़ अब मैं तेरे दीन-ए-इरफ़ाँ का
फ़ितरत-ए-क़ुर्बत-ए-ज़मीं ने कभी उड़ने ना दिया
वर्ना शौक हमें भी था हासिल-ए-आसमाँ का
जितने गिरते हैं अश्क उतनी ही मिलती है मय यहाँ
सौदा एकदम खरा है मेरे बादा-फ़रोशाँ का
हो गया काफ़िर बन्दग़ी-ए-इश्क़ में मैं
किया ही नहीं तूने कभी ईफ़ा अपने दीद-ए-पैमाँ का
तेरे आगे आ जाती है लुक्नत ज़ुबाँ पर
तेरे पीछे कोई मुवाज़ना नहीं है मेरे अंदाज-ए-बयाँ का
ढूँडने से भी अब मिलता नहीं जिसमें किरदार मेरा
कभी उन्वान हुआ करता था मैं उस दास
्ताँ का
तेरे दर की पनाह में आया तो ये इल्म ना था कि
गुजरता था तेरे ही घर से रास्ता दश्त-ओ-बयाबाँ का
अागाज़-ए-सफर में जो हुजूम साथ चला था ख़्वाहिशों का
अंजाम-ए-सफर में नाम-ओ-निशाँ ना रहा उस कारवाँ का
ड़ूबा मैं तेरी आँखों में इस यकीं के साथ कि
उभरेगा ना अब कोई अक्स इन आँखों में किसी रक़ीबाँ का
जब मरीज-ए-दिल का दिल ही नहीं रोग-ए-इश्क से निजात का
होता फिर कैसे असर चारागर तेरे किसी भी दरमाँ का
क्यों बहस करते हो इस पर कि जो घर जला वो था हिन्दू का याँ मुसलमाँ का
तवज्जोह दो इस पर कि बेखौफ घूम रहा है यहाँ हैवान धरे रुप इन्साँ का।