ग़ज़ल
ग़ज़ल
आइने ने फिर चिढ़ाया देर तक
आक़िबत ने भी जगाया देर तक
रूठ कर मुझको मनाया देर तक
आप बीती फिर सुनाया देर तक
नौबहार भी ज़िन्दगी में आये अब
ज़िन्दगी ने आज़माया देर तक
आरज़ू थी हम मिलेंगे उनसे भी
वो न आया क्यों रुलाया देर तक
आशियाना था शज़र का क्या यहाँ
छाँव थी फिर धूप लाया देर तक
वक़्ते-आख़िर यह भरम टूटा मेरा
टिक न पाई मोह-माया देर तक
बे ख़ता हूँ मैं भी इस बाजार में
फिर मुझे ही क्यों फसाया देर तक