गजल (इल्म)
गजल (इल्म)
अपनी परेशानियों को मैं हंसते हंसते निभाता हूँ ,
आंसू नहीं बहाता मगर आसूंओं को हंसने का इल्म सिखाता हूँ ।
नहीं भरता आहें व कराहें कभी, मैं तो अपनी पीड़ाओं में भी जश्न मनाता हूँ ।
खेलता हूं दुखों तकलीफों को भी खेलों की तरह, दिल के मैदान में इनको रोज सहलाता हूँ ।
बेशक सूख नहीं पाए पुराने जख्म अभी तक, पर नए जख्मों को राह दिखाता हूँ ।
माना की समन्दर में ढल जाती है बूंदें मुहब्बत के लिए, उसी पानी को लेकर मैं नफरत की आग बुझाता हूँ ।
असफलतांए मुझे कैसे हरा सकती हैं,देख हाथों की हथैली को हर रोज मैं
सरसों उन पर उगाता हूँ ।
सच को सच कहना आदत है सुदर्शन, तानाशाह, हुक्मरानों की बातों को अक्सर रोज ठुकराता हूँ ।