ग़ज़ल-चलते चलते थक गया हूँ मैं
ग़ज़ल-चलते चलते थक गया हूँ मैं
ज़िन्दगी के इस सफ़र में यूँ चलते-चलते थक गया हूँ मैं,
जाने कौन सी उलझन लिए इस मोड़ पर रुक गया हूँ मैं,
भुला दिया अपना वजूद जिनके लिए वही अपने न हुए,
एक तरफा रिश्तों में खुद के किरदार से बहक गया हूँ मैं,
जिनकी ख्वाहिशों के लिए दौड़ा उनसे प्यार ही तो चाहा,
पर नफ़रत अच्छी, दिखावे के इस प्यार से पक गया हूँ मैं,
कभी सोचा ही नहीं, किया ही नहीं खुद के लिए कुछ भी,
अपने सपनों को भुलाकर वक़्त की गर्द में ढ़क गया हूँ मैं,
बहुत चला मैं दुनिया के इशारों पर अब खुद की तलाश है,
ज़िंदगी के इस नए सफ़र की खुशबू से ही महक गया हूँ मैं,
अब देखना नहीं पीछे किसके लिए रुकना है आखिर मुझे,
परवाह कहाँ की रिश्तों ने, जिनके लिए हद तक गया हूँ मैं।
