ग़ज़ल 22 सदाक़त-परस्ती
ग़ज़ल 22 सदाक़त-परस्ती
ये अहसान भी आप का कुछ कम नहीं था
शब्-ए-फुर्सत में भी ज़ी को आराम नहीं था
हर लम्हा अब अपना गुज़रता है तज़ब्ज़ुब में
जब तू था तो ज़िन्दगी में कोई इबहाम नहीं था
ना जाने क्यों एक हश्र सा बरपा महफ़िल में रुख से
पर्दा उठा था उसके कोई खुदा का इल्हाम नहीं था
निकला है जब से आदम फिरदौस से तबसे बरपा है दाइम हंगामा यहाँ पर
इस हादसे से पहले क़ायनात में कोई कोहराम नहीं था
हर रोज़ थमा देता था एक नया सामान-ए-ग़म रखने को
अगरचे वाक़िफ़ इससे कि दिल था मेरा कोई गोदाम नहीं था
सदाक़त-परस्ती ने ना जाने कितनों को पहुँचाया दार पर
सच का नाम ज़माने में यूँही बदनाम नहीं था
अलग ही मंज़र था उसके दर-ए-मक़्तल का
क़त्ल-ए-आम हुआ और हाथों में उसके समसाम नहीं था
जिसे मिली ना मंज़िल मगर उठाया लुत्फ़ सफर का
वो शख़्स हार के भी नाकाम नहीं था
अब तो बस रिज़्क़ की खातिर घिसते हैं कलम मुसन्निफ़ यहाँ
उनकी कलमों में अब सल्तनतों को हिलाने का वो कुव्वत-ए-इर्क़ाम नहीं था
जिस्म से लहू का एक एक कतरा तक निचोड़ लिया लेकिन
दिल को अभी भी ये यकीं हसरत-ए-यार ख़ूँ-आशाम नहीं था।
