ग़ज़ल,,,15
ग़ज़ल,,,15
ज़ाहिद कुछ तो रख मयकदे में अदब कम से कम
कर यहाँ ज़िक्र-ए-यार बेहिसाब और ज़िक्र-ए-खुदा कम से कम
रहना है सुकूँ से इस जहाँ में तो
रख औरों से उम्मीदें कम से कम
है जो दौलत तेरे पास जहाँ भर की
तो खरीद ले मौत को ही कम से कम
नहीं बनना था मेरा हमसफ़र तो ना सही
दो कदम साथ चल के देखा तो होता कम से कम
आसमाँ में तो चाँद को भी तोड़ के जोड़ देता है तू
ज़मीँ पर मेरे टूटे दिल को ही जोड़ दे कम से कम
अगर बनना है मेरा ग़म-गुसार तो
रख अपनी आँखों में एक समँदर कम से कम
बस एक ही ख़ासियत चाहिए यहाँ रहनुमा होने के लिए
वादे अवाम से बेशुमार और उनपे अमल कम से कम
रखना है अपनी ज़िन्दगी को मीठा तो डाल
उसमें अपनी ख़्वाहिशों की चाशनी कम से कम
मय-ए-ग़म को रक़ीक़ ना कर अश्क़ों में डुबाकर
मज़ा है मयकशी का तब जब हो शराब में पानी कम से कम
खुल ना जाए कहीं राज़-ए-मोहब्बत ज़माने में सो की उनसे
गुफ़्तगू निगाहों से मुसलसल और ज़ुबाँ से बातें कम से कम
पीछे मुड़ के ना देख रख नज़र आगे मंज़िल पर
सोच मुस्तक़बिल की याद कर पुरानी बातें कम से कम।
