Ghazal No. 10 उम्र कट गयी तमाम इसी गफलत में कि
Ghazal No. 10 उम्र कट गयी तमाम इसी गफलत में कि
जुनूँ की चरखी में था माँझा वफ़ा का और थी तेज हवा हसरतों की
फिर भी तेरे आसमाँ में इश्क़ की पतंग कभी ना उड़ी मुझसे
हर रोज़ गिरता था टकरा के कमरे में बिखेरी हुई चीज़ों से
मेज पर रखी हुयी तेरी तस्वीर मगर कभी ना गिरी मुझसे
चाहा तो बहुत की उतार के फेंक दूँ उसे बिस्तर-ए-हयात से
तेरी यादों की चदार पर मगर एक सिलवट भी ना पड़ी मुझसे
मिलती भी तो कैसे मंज़िल कामयाबी के सफर में मुझको
पैरों में पड़ी सदाकत की ज़ंजीर कभी ना खुली मुझसे
रख कर गिरवी अपने ज़मीर को हसरतों के दर पर
मिली जहाँ की हर चीज पर ज़िन्दगी कभी ना जुड़ी मुझसे
फ़क़्त तुझसे निभाने की ज़ुस्तज़ू में
अपने से कभी ना निभी मुझसे
बना तो लिया खुद को वफ़ा का समँदर मगर
इश्क़ की कोई नदी कभी ना मिली मुझसे
बताता रहा औरों के हाथ देखकर उनका मुस्तक़बिल
अपने हाथ की लकीरें कभी गयीं ना पढ़ी मुझसे
उम्र कट गयी तमाम इसी गफलत में कि ज़िन्दगी की
बिसात में कोई चाल कभी गलत ना पड़ी मुझसे
यूँ हुआ ज़िन्दगी में अँधेरों से राब्ता अपना
फिर घर की कोई खिड़की कभी ना खुली मुझसे
उसे हमेशा गुमाँ रहा इश्क़ में अपनी मसीहाई का
अपनी ज़फाओं की दास्ताँ उसने कभी ना सुनी मुझसे।