गीतिका
गीतिका
सच्चाई का पंथ हमेशा जो अपनाता ।
सुखद सुमंगल लक्ष्य उसे ही तो मिल पाता ।।
जीवनचर्या शुद्ध बनायी अपनी जिसने,
तन मन रहता स्वस्थ कभी दुख नहीं सताता॥
पथ पर सुरभित पुष्प बिछाए जिसके हमने,
कपट- द्वेष के शूल हृदय में वही चुभाता॥
क्रोध - लोभ की अग्नि लिए हाथों में कोई,
मानवीय सम्बन्ध खाक में रहा मिलाता॥
दुर्व्यसनों में लिप्त और जो है व्यभिचारी,
नैतिकता का पाठ आजकल वही पढ़ाता॥
आँखें जबसे रेत हो गयीं अपनेपन की,
मिले निभाते लोग स्वार्थ का केवल नाता॥
आँगन में दीवार खींच दी जाने किसने,
सगा रक्त - सम्बन्ध बना दारुण- दुख दाता॥
सुख-दुख का व्यापार रोज करते हैं आँसू,
नियति-नटी का खेल हँसाता कभी रुलाता॥
संघर्षों के बीच न जाने कबसे जीवन,
कथा व्यथा की मूक जगत को रहा सुनाता॥
