घंटों निहारती हूं आईने में खुद को
घंटों निहारती हूं आईने में खुद को
कई घंटों तक आईने के सामने बैठकर
खुद को निहारती रही
मेरे अक्ष ने आखिर मुझसे पूछ लिया
ऐसा क्या है तुममें जिस पर
तुम इतनी इतराती इठलाती हो??
माना हैं दुनिया में श्रृंगार बहुत से
पर मैं खुद को उनसे संवारती नहीं हूं
ऊपर की सुंदरता कहां दिखती मुझे
अंदर के रूप को निहारती बहुत हूं
प्रकृति के सुंदरता बसती है मुझमें
इसलिए मैं यूं इतराती रहतीं हूं
बड़े गौर से सुनना आईने मेरे
मैं सुंदरता का राज तुमसे कहतीं हूं
देखो! ये प्रकृति खुद मेरा श्रृंगार कैसे करती है।
सुबह का लाल सूरज
मेरे माथे की बिंदी बन जाता है
रात का वो आधा चांद
मेरे बालों को समेटकर बांध जाता है
वो आसमां में चमचमाते तारे
मेरे कपड़ों में सितारे की तरह चमकते हैं
वो उड़ते हैं जो जुगनू सारे
मुझे अंदर तक रोशन करते हैं
मैं इतराती तितलियों जैसी
जो सारे भंवरे पीछे पड़ जाते हैं
मैं इठलाती हूं चंचलता में फिर
जब लोग कैद करने पे अड़ जाते हैं तो भला!
क्यूं देखूं आईने में सुंदरता अपनी
किसी की आंखों में खुद को संवारा हैं
एक रोज बैठी जो संग मनमोही के
तब समझा वो भी थोड़ा आवारा हैं
एक हवा का झोंका आकर सहसा ही
मेरे बालों को इतर बितर बिखेर गया
और जब समेटने लगी मैं केश अपना
तो सुनो वो प्रेमी भी कैसे ढेर भया
कहता खुले बालों में तुम सुंदर इतनी
दुनिया में कोई तुम सा सुंदर ना होगा
मेरी आंखों से कभी देखो खुद को
आईना भी तुमसे सच कहता ना होगा
तो अब तू ही बता आईने मेरे,
जिसके लिए हैं साज श्रृंगार मेरा
खुबसूरत हूं मैं उसकी नज़रों तक
घंटों निहारती हूं आईने में उसी को
जो आ नहीं पाता है मेरे अधरों तक।