ग़ज़ल
ग़ज़ल
तेरे अश्क़-ए -पनाह से दीवाना हुआ जाता हूँ ,
शमीम -ए - पैक़र तेरी से दीवाना हुआ जाता हूँ।
गहरे इन गेसुओं की बू है तेरे मुख़्तलिफ़ सी ,
इनकी छाहँ को बस मैं दीवाना हुआ जाता हूँ।
जिस्म तेरा ढला है तेरा अब- ए - कुंदन में ,
इसकी ओर खिचा बस दीवाना हुआ जाता हूँ।
ये शोखियाँ ,ये मस्तियाँ ,ये बांकपन तेरा ,
दिल जिगर क़ुर्बान , बस दीवाना हुआ जाता हूँ।
रग -ए - गुल को शर्माए ये कमर तेरी ,
शोख अप्सरा हो बस दीवाना हुआ जाता हूँ।
सितम की आग है तेरे जिस्म में जाना ,
बाख़ुदा सितम की आग है तेरे जिस्म में ,
फना होने दो इस आग में ,दीवाना हूं जाता हूँ।