घड़ी की सूइयाँ
घड़ी की सूइयाँ


भर गया है दिल कई
बातों को सोच कर।
रह गई है सांसें चुपचाप
मन मसोस कर।
जालिम घड़ी की सूइयाँ
बेदर्द सी
तेज रफ्तार से आगे
सरकती रही।
आगोश में बंधे बदन
गर्माहट से पिघलती रही
ख्वाब शर्माती रही,
सिमटती रही।
पहरे ज़माने के
मुंह बाये चिढ़ती रही
कुढ़ती रही।
दबे पाँव अंधेरे का
उठाकर फायदा
वक्त का दामन पकड़ कर
सुईयां चलती रहीं।
रात की बात
सुबह चद्दर भी भूलती सी लगी
बुझी बत्तियां भी गवाह बनती रही
कभी खामोश, कभी बोलती रही
तकिये ने मन मसोसा होगा
नींद और उन गर्म सांसों की
जद्दोजहद को
नर्म रूइयों ने महसूस किया होगा
नजद
ीकियों से खुश होकर
फिर बिछड़ जाने का सोच कर
आंसूओं से तर
आँखें भीगती रही।
वक्त को जाना था चली गई।
कल की बात पुरानी
और आज की नई हो गई।
यादें बन गईं रात की बात
वो आगोश, वो चाहत
वो नींद और वो साथ।
किस्मत वक्त को कोसती रही
सुइयोंमें खुद को खोजती रही।
सुबह की चाय में थी
चाहत की महक घुली।
शहद की मिठास भी
और इश्क थी संदली।
तलवों को गुदगुदाती
एड़ियों, टखनों को दबाती
पिंडलियों को सहलाती
आह!
टूटते बदन को मिली
उस छुअन से राहत।
सालों से दबा दर्द
और मिलने की चाहत।
वक्त से भी मांगी
थोड़ी और मोहलत।
पर जालिम घड़ी की सूइयाँ
बेदर्द सी
तेज गति से
आगे सरकती रही।