गौरैया मेरे आंगन की
गौरैया मेरे आंगन की
एक झोपड़ी में
एक गौरैया और मैं
दोनों उसे अपना
समझते
संवारती एक एक
तिनका चुनकर
वह स्वर्ग समझकर
मैं झुँझलाता
उसके इस हरकत पर
वह सबेरे चीं चीं कर
फुदकती आंगन पर
स्वागत में शास्वत भोर का
कभी निहारती मुझे
बैठ एकटक
ज्ञान था उसे बांस के छोर का
जो लोटती कभी वह
साथियों संग धूल पर
मेघ बरसते रिमझिम
गगन से स्थूल पर
पर जब मेरा आशियाना
बदला ईंट चुना में
तब से घर आंगन
भर गया सूना में
न वो भोर हुआ
न वो बारिश
न रही वो
न रही शान शौकत आंगन की
वो जाने कहां खो गई
छोटी सी गौरैया मेरे आंगन की।