।। एकलव्य ।।
।। एकलव्य ।।
क्यों इतिहास ढूंढता है मुझमें
कुछ अपनी छुपी कहानी भी
जो मैंने सच में जी थीं वो सब
कुछ कल्पना की जुबानी भी ।।
जाने कितनी ही कुंठाओं का
द्वापर से अब तक चुभता कांटा
जो थे सक्षम उन्हें कृष्ण मिले
मुझको तो तरस है बस बांटा ।।
हाँ सक्षम था,था निर्भीक भी में
ये अरण्य मेरी सम्पत्ति सब था
प्रतिभाएं विलक्षण थी मुझ में
मोहताज कृपा का मैं कब था ।।
था जन्मा निषाद पर कैसा विषाद
तब ना जन्म मेरा परिचायक था
अभिद्युम्न नाम, पर्वत सा भाल
अपने उस कुल का मैं नायक था ।।
थी लगन बड़ी तो स्व शिक्षा ली
गुरु मूरत से ही सब दीक्षा ली
ना समझो मुझे ठुकराया हुआ
मैंने तो ये डगर स्वयं इक्षा ली।।
द्रोण के भी तो मन के छाले फूटे
उनके भी तो थे कितने प्रण छूटे
मन ही मन मुझको आशीष दिया
गुरुदक्षिणा ली जो दिल ना टूटे ।।
गुरु ने अँगूठा न माँगा था कभी
निषेध किया बस उस का उपयोग
सुविधा चक्र से बाहर था निकाला
शर संचालन का ये अमित प्रयोग ।।
तर्जनी और मध्यमा से तब मैंने
धनुर्विद्या का था अभ्यास किया
अर्जुन तो रहा बस परिपाटी में
मैंने नयी विधा का न्यास किया।।
आज के युग की धनुर्विद्या में
होता विधा का मेरी ही प्रयोग
तर्जनी और मध्यमा ही हैं भाती
अंगूठे का ना अब होता उपयोग ।।
जो अर्जुन महाधनुर्धर ठहरे
तो मेरी भी गिनती है उनमें अब
जिसने विद्या को आयाम दिये
नूतन परिष्कृत उस युग तब ।।
गुरुदक्षिणा में गुरु ने मुझसे जो
अंगूठे उपयोग का लिया था हव्य
तो देखो वो मेरी विधा है जीवित
आज का हर धनुर्धर है एकलव्य
आज का हर धनुर्धर है एकलव्य ।।
मेरी यह रचना एकलव्य की अंगूठे की गुरुदक्षिणा की कथा को उसी के शब्दों में एक नये आयाम से प्रस्तुत करने का प्रयास है। वर्तमान के आर्चरी प्रतियोगिता (धनुर्विद्या) में अंगुठे का उपयोग नहीं होता और एकलव्य यही बता रहा है कि द्रोण ने उस की प्रतिभा देख कर जो विधा दूर भविष्य में होनी थी उस में उस को द्वापर युग में ही पारंगत बना दिया।