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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics Inspirational Others

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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एक पाती राधा की

एक पाती राधा की

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🌸 एक पाती राधा की 🌸

(विरह की मौन पुकार — केवल कृष्णमय समर्पण)
✍️ श्री हरि
🗓️ 23.07.2025

प्राणप्रिय,

आज यमुना की लहरें कुछ असहज सी हैं,
कदम्ब की डालियाँ भी शांत नहीं,
जैसे सब कुछ मुझसे
तेरी कोई खबर पूछ रहा हो...

पर मैं तो जानती हूँ न —
तू कहीं गया नहीं है,
बस रूप बदल गया है तेरा।

तू वृंदावन छोड़ गया,
पर तेरा मन वृंदावन बन गया —
और उसमें तू
अब भी वैसे ही बसा है
जैसे बाँसुरी की धुन में बसती है
प्रेम की गूँज...

जाने के बाद
फिर कभी आया नहीं,
फिर भी तुझे कभी कोसा नहीं मैंने।
कोसूँ भी तो कैसे?
तू ही तो मेरा हृदय है,
और कोई अपने हृदय को कोसता है क्या?

कभी-कभी जब अँधेरा ज़्यादा घिर आता है,
और चन्द्रमा भी बादलों में छिप जाता है,
तब मैं तेरे ही आदेश को
मन की ओढ़नी में लपेट लेती हूँ।

"धर्म की रक्षा के लिए जाना होगा राधे..."
यही कहा था न तूने?

और मेरे नयनों ने मौन विदाई दे दी,
मेरे हृदय ने तुझे मुक्त कर दिया
जन कल्याण के लिए।

मैं रोती नहीं हूँ,
ये आँसू मेरे दुश्मन हैं —
बरबस निकल पड़ते हैं,
जैसे ये तेरी चरण-रज
लेना चाहते हों।

पर उन अश्रुओं में भी
तेरी छवि ही तैरती है।
वे आँसू जल नहीं,
मेरे प्रेम की पराकाष्ठा हैं।

तू कुरुक्षेत्र में गीता सुना रहा था
और मैं यहाँ वृंदावन में
गीता-ज्ञान को सफल बना रही थी —
"समता" में रहकर।

लोग पूछते हैं —
"क्यों राधा, अब भी प्रतीक्षा?"
मैं मुस्कुरा देती हूँ,
क्योंकि वो नहीं जानते —
जिसे मैं चाहती हूँ,
वो कभी गया ही नहीं,
मुझमें ही समाया हुआ है।

मुझे तुझसे मिलना नहीं,
बस तुझमें खो जाना है।
और क्या तू नहीं जानता —
मैं कभी तुझसे अलग थी ही नहीं।

तेरी हर साँस में मेरी सुधि है,
मेरे हर क्षण में तेरा स्मरण।
हम दो नहीं,
एक ही तो हैं —
बस दो रूपों में विभक्त एक आत्मा।

जब तू
अधर्मियों का वध करता है,
तो मैं आँखें मूँदकर
तेरी ढाल बन जाती हूँ।
जब तू किसी पीड़ित को गले लगाता है,
तो मैं वही करुणा बन
तेरे हृदय में उतर जाती हूँ।

मेरे प्रिय,
मैं अब भी वहीं हूँ —
जहाँ तूने छोड़ा था,
पर मैं ठहरी नहीं हूँ।
तेरे साथ बह रही हूँ,
तेरे भीतर जी रही हूँ।

तेरे नाम का एक-एक अक्षर
अब तक मेरी साँसों की माला में टँगा है।
राधा हूँ मैं —
तेरे बिना अधूरी नहीं,
तेरे कारण ही पूर्ण हूँ।

बस इतना जान ले —
जब-जब तू दर्पण देखे,
उसमें मुझे देखे।
क्योंकि राधा कहीं बाहर नहीं —
कृष्ण के भीतर ही है।

सदैव कृष्ण की —
राधा



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