एक लड़की
एक लड़की
खिलखिलाती - इठलाती वो घर में घुमा करती थी
उसकी पायल की छम-छम से गलियाँ गूंजा करती थी।
हर किसी को उसका प्यारा मुखड़ा, सहज ही भा जाता था
उसकी भोली हंसी से , हर कोई खिंचा चला आता था।
लाडली थी सबकी वो, हर कोई गोद खिलाना चाहता था
उसके चाँद से मुखड़े पर, बरबस चुम्बन बरसाता था।
हुई वो किशोरी तो, नजरें कईयों की बदल गई
बहन- बेटी थी जो कल तक, अब बस वो "लड़की" हो गई।
कोई छुप-छुप कर तो, कोई खुले आम आँखे सेकने लगा
कोई बिठाता पास में, और बदन को उसके टटोलने लगा
हुई जवानी आने को तो, मोहल्ला चर्चा करने लगा
"लड़की" थी जो कल की, "माल" वो आज लगने लगा।
मासूमियत में वो अपनी, सबकी हवस पढ़ न सकी
बाहर वालों से सजग रही, कुछ "अपनों" से बच न सकी।
अपनों में छिपे एक शिकारी ने, एक दिन उसका शिकार किया
दोस्तों को अपने साथ मिला कर, मासूम पे अत्याचार किया।
रोई, चीखी-चिल्लाई वो बहुत, अंत तक उसने प्रतिकार किया
कब तक चलती उसकी, छह मुस्टंडों ने उसपर वार किया।
हुई हवस पूरी दरिंदो की जब, देखा वो जान से चली गई
कल तक जो "लड़की" और "माल" थी, आज "निर्भया" बन गई।
इंसाफ दिलाने के लिए उसको , उमड़ा था जन सैलाब
किसी के लिए टी. आर.पी. , किसी के लिए वोटों का था हिसाब ।
कहीं से तो रूह उसकी भी, देख रही होगी ये "खेल" लाजवाब
पूछती होगी अपनी खता वो, जिसका न किसी के पास जवाब।