"एक कविता तुम्हारे लिए"
"एक कविता तुम्हारे लिए"
एक कविता तुम्हारे लिए
लिखनी थी मुझे!
पर लिखूं, तो क्या लिखूं?
ख्याल सारे
बहे जा रहे हैं
भाव की सरिता में।
फिर चल दिये
भीगे पंखों को पसार कर
कल्पना की उड़ान भर
जंगलों, समंदरों,
और पर्बतों के पार।
ढूंढ कर लाये कितने ही
अलंकार, उपमाएं
फिर उन सबको पिरोया
शब्दों की लड़ियों में।
पर यकायक
तुम से नज़र मिलते ही
छूट पड़ी मेरे हाथों से,
सारी शब्दों की लड़ियां।
और बरस गई
ज़िलमिल बूंदे बनकर
मेरी आँखों से।
और मैं
अभिभूत होकर
रह गई हूं,
उन्हीं भीगे हुए
एहसासों से
सराबोर बिखरे हुए
शब्दों की बूंदों से।
हां यही तो
वह कविता थी,
जो मैं लिखना चाहती थी
तुम्हारे लिए।

