एक चिठ्ठी
एक चिठ्ठी
सोचता हूँ लिखूँ ईक चिठ्ठी
जिसमें सुुुुगंध मिट्टी की अपनी हो भरी
तरंग उठते मन में कशमकश के
कैसे कह जाए सहज सी कुछ मीठी।।
झुक सकता नहीं कहना है बहुत
कहना शुुुरू हो तो कहाँ से,कब से
चलो यत्न करते हैैं ठीक वहाँ से
रीत रस्म शुुुरू होती जहान की जहाँ से
बात हो सकती कुछ कहीं कहीं तीखी।।
तङक भङक की भीङ जब तब चीखी
मानो दुनिया की दारी बिल्कुल न सीखी
सुई घङी की टिक टिक कर बढती चली
बढती गई दुश्वारी,मतलब बिन तल तक दबी।।
छूटा फिर साथ था जिसके हाथ में हाथ&nb
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थोङी दया कहीं से कोई न आई
जतन से दुनिया नई अपनी ली सजाई
पल में कथा अपनी सब हुई पराई।।
चक्र समय का रूकता कहाँ कभी
सारे छोङ विश्वास,स्नेह और प्रीत
बसा ली सबने अपनी अपनी जमीन
अपनापन रह गया अपने से ही सही।।
दिन गिन गिन कर गुजर रहें अपनी गति से
साध सका न किसी को अपनी मति से
अजब यह खेला कोई न संगी बस अकेला
बस अब है ईक यही सरल सा सपना
पहुँचता वहाँ जहाँ से बना मुझ सा खिलौना।।