एक बेटी की कलम से
एक बेटी की कलम से
तेरे जरा से डांटने पर जो में रो देती थी,
तू कहती ससुराल जाकर क्या गुल खिलायेगी,
तो तेरी हर बात का पलटकर जवाब देती थी,आज गलती ना होने पर भी चुप रहना पड़ता है,
आंखों मे आंसू और चेहरे पर मुस्कुराहट होती है।
माँ तब तू बहुत याद आती है।
मेरी कच्ची पक्की रोटियां भी पापा बडे चाव से खाते थे,
कभी दाल में नमक कम ज्यादा हो फिर भी तारीफें लुटाते थे,
अब अच्छे से अच्छे खाने मे भी नुक्स निकाले जाते हैं,
नमक मिर्ची कम ज्यादा होने पर हिसाब पूछे जाते हैं,
माँ तब तू बहुत याद आती है।
छोटी छोटी बातों पर भाई बहन से भी लड़ लेती थी,
अब अपने हक की लडाई भी लड़ नहीं पाती हूँ।
बिना गलती के चुप रहना सीख लिया मैने,
गम को छुपाकर हंसना सीख लिया मैंने,
रिश्तों को संभालने के लिए झुकना सीख लिया मैने,
फिर भी हर किसी को शिकायत जब होती है मुझसे,
माँ तब तू बहुत याद आती है।
माँ तू कहती थी बेटी पराया धन है, पराये घर जाना है,
दो घरों मे रोशनी फैलाती है बहू बेटियाँ ,
फिर भी क्यों पराई ही कहलाती है बहू बेटियाँ?
आज समझ में आई माँ तेरी वो बातें,
जिसे मै अपना समझती थी वहां मेरा अपना कोई नहीं,
रोते हुए चेहरे पर मुस्कुराहट ला दे ऐसा कोई नहीं,
ममता की छांव मे सुलाकर सहला दे ऐसा कोई नहीीं,
माँ तब तू बहुत याद आती है।
माँ तब तू बहुत याद आती है।
