एक अनजान को
एक अनजान को
मैं कैसे भूल सकता हूँ
उस अनजान को
जिंदगी के उस मील- पत्थर पर,
जब अकेला ही रह गया था
मेराआत्म-विश्वास भी मुझे
छोड़ कर दूर जा खड़ा था
मैं कैसे भूल सकता हूँ
उस अनजान को
कब मेरी सोच ने,
सोचना बंद कर दिया था
कहाँ से विचारों ने,
शून्यता का रुख किया था
मैं कैसे भूल सकता हूँ
उस अनजान को
उस वक्त जब विचारों की
जो एक लौ टिमटिमायी थी
विश्वास की किरण जो मेरे ,
दिल में उसने जगमगायी थी
मैं कैसे भूल सकता हूँ
मेरी सोच ने, विचारों की
जो सकारात्मकता उससे पाई थी
मैं कैसे भूल सकता हूँ
हां, मैं नहीं भूल सकता हूँ
उस अनजान को।