एक अधुरी ख्वाहिश
एक अधुरी ख्वाहिश
वक्ते-रुखशत आ गया,
मुहलत ना दी हमें संभलने की।
आख़िरी दिदार को तरसे हम ,
वक्त ने हालात न दी मिलने की।
इम्तिहान तेरा देखा हमने ,
आगाज से अंजाम तक।
राहे छोटी थी ख्वाब से ,
गुलिस्तां से गुलफाम तक।
ऐ जिन्दिगी मिलन को,
हसरत थी इन्तेजार की।
नसीब हमसे खफा रहा ,
ख़िला ना गुल बहार की
फतेह का ख्वाब क्या देखें,
मिला जो दाग शिकस्त का।
मुकाबला तो करना था ही,
पर कैसे करें इस वक्त का।
कल हसीन लम्हों से,
आने वाले लम्हे अंजान है।
अक्ल हैरान सा,
दिल भी परेशान हैं।
क्या ऐतबार इस जिंदिगी से ,
क्या मौत से चेहरा छुपाए,
लिखा जो मुक़द्दर में यहाँ,
चाह के भी रोक न पाएं।