ए ज़िंदगी अब तो गले लगा
ए ज़िंदगी अब तो गले लगा
बयाँ से परे है हवाओं में घुल रही इंसा के जले हुए तन की
लहलहाती गंध, क्या ईश की दहलीज़ तक नहीं पहुँच पाती।
आहत परिवारों की चीखों का शोर बेकल करते मन को
अवसाद की तरंगों में जकड़ कर ज़िंदा मन को कचोट रहा है।
साँसों को तरसती मंद होती धड़कन भीख मांगते ज़िंदगी की
गिरह छोड़ते कह रही "ए ज़िंदगी अब तो गले लगा ले।"
वेदना का समुन्दर बन गया संसार मृत्यु की गोद में
खेलते इंसानों के तन को देखते रूह काँपती है।
मुसलसल मरती ज़िंदगी का बैर है मौत से या
ईश के प्रकोप की आँधी सन्नाटे में तब्दील होते
चीताओं की राख मरघट में उड़ रही है।
सुख के क्षण को जल्दी होती है अवसाद के लम्हें
क्यूँ ठहर गए है छंटते ही नहीं
दर्द के बादल और कितने बरसने है।
फटा है गमगीन कोई आसमान धरती पर
मरीज़ों का मजमा बड़ा है कैसा वक्त आया
इंसान से इंसान का नाता टूटा है।