दुषित हवाऐं
दुषित हवाऐं
सर्द सी भीनी-भीनी हवा
गेसुओं को महकाती हुई
बहारों के दामन से आती थी जो
सपनों सी सुन्दर इंसा की बस्ती में
हर कली की सिहरन बन जाती थी जो
बदल कर रुख अपना कहने लगी है
संग जहरीले सायों का सहने लगी है
अटकलों की दुनियॉं के अपयशी परिन्दों के
चुटकीले इशारों पर बहने लगी है
अपहरण, हत्या, लूट-पाट
या रम रही गाथा यौनाचार की
प्रगति पथ को धूमिल करती
चल रही ऑंधी भ्रष्टाचार की
जन-मानस की चिता बना कर
रहे रोटियॉं सेक
जब-जब गाज थी इन पर गिरने
सारे शातिर हो गए एक
भड़का चिंगारी मजहवी जुनून की
सौहाद्रता को आग लगाती हैं
खेाखला करके प्रजातंत्र को
सियासत के दौर चलाती हैं
हर तरफ से बढ रहीं हैं वे ही तो हवाऐं
इंसानियत के दुश्मनों ने छेड़ा था जिनको
पदलोलुपी, साम्प्रदायिकता के उन्हीं
विषधरों की फुफकार बन कर उठीं हैं जो
मॉं का कोई सपूत आगे बढ़ भी गया
तो उसी का दम बन कर धुटी हैं जो
बचो इस जहरीली ऑंधी से
ढाती चली आ रही है जो हर उस इमारत को
बुलन्द की थी जो आजादी के मतवालों ने
एकता की नींव पर लहू के हर कतरे को
जहॉं छिड़का था भारत मॉं के लालों ने
और छूकर कुर्बानी की बुलन्दियों को
सोंप गए थे मासूमियत के ढोंगी दरिन्दों को
वह सुनहरा भविष्य जिसे
जाति, धर्म, प्रान्त, समुदाय
पता नहीं किन-किन नामों से
बॉंटते आ रहे हैं।
और तिरंगे की हर एक पट्टी को
अलग-अलग हाथों में लेकर
जन गण मन गा रहे हैं,
जन गण मन गा रहे हैं।