दशानन या दशामन
दशानन या दशामन
महा ज्ञानी मैं
पराक्रमी मैं
भूल थी था जरा अभिमानी मै
कुल भी उच्च मेरा
भर्मा का वंशज मैं
पुल्तस्य का पौत्र मैं,
फिर भी जाना आसुरी कुल सिर्फ मुझे इस संसार ने
मां के कुल से राजपथ छीन देवों
कुबेर को राजा बनाया था
पिता रहे वेदों में लीन
मुझे को प्रतिशोध की अग्नि ने पाला था
मैं भी कुल का पहला पुत्र
सबका दुलारा था,
देख सके ना संसार शायद
सोने के लंका से पहले
कभी दशानन भी बेचारा था
मेरे दिन वेद-पुराणों के ज्ञान लेकर कटते थे
शस्त्र उठे मेरे जब देवता भी डरते थे
आदरणीय बड़ा भाई था मैं भी
लेकिन मुझे पर सदैव प्रतिशोध का बोझ था
जो ईर्ष्या कi आग में जलता रहा
वो बालक अबोध था
शायद ना रखे याद जग
पर मैं भी हर कला में निपुण था
जिसने तप से जीत स्वर्ग से अमृत
अपनाया भोलेनाथ ने जब जग ने ठुकराया था
भक्ति में ऐसा लीन शीश महादेव को चढ़ाया था
जगत को शिव तांडव स्तोत्र रावण ने ही सिखाया था
भक्त था ऐसा स्वयं शिव का आत्मलिंग जीत लाया था
लंका मेरा अधिकार था
क्यों उसे मांगना गलत था
सत्ता मोह नहीं
यह मेरा मां प्रति दायित्व था
मेरे जीवन में भी रहे पश्चाताप कई
ना ग्लानि से अपरिचित था
रंभा और वेदवती का दोषी
इंद्र से तो जीता
इंद्रियों(काम,मोह,क्रोध) से पराजित था
अभगा था की अपना से ही छला गया
क्या दोष ठेहराऊँ जग को
मैं तो अपने ही आंगन में हार गया
एक थी शांता जिसने भाइयों के लिए राजपाठ त्याग दिया
मेरी सुरपनाखा ने तो प्रतिशोध की अग्नि झुलसा ने के लिए मेरी सुख शांति का बलिदान लिया
अपने अभिमान के लिए उसने मेरा मान मांग लिया
भरत ने तुम्हारी पादुका रखी
लक्ष्मण ने तो अपना प्रेम को त्यागा था
तुम में ही तो उसने अपने धर्म को पाया था
मुझे विभीषण ने त्यागा क्षण में
में क्यों वो अभागा था
जग से जीता मै
अभिमान से हरा था
भाग्या का खेल ऐसा
की नवग्रहों को मुट्ठी में रख कर भी
मै बेसहारा था
सत्तित्व में लीन मंदोदरी
पांच कन्याओं की शिरोमणि थी
क्षमा प्राप्ति हो उससे की इस अधर्मी की पत्नी थी
धर्म से भागते हुए अपनों मै
केवल वो ही पूरी मेरी हुई
मेघनाथ मेरा प्राणों से प्रिया था
भूल सिर्फ इतनी ही थी की रिश्तों के अधीन था
खोना इंद्रजीत को मनोबल आखिरी वार था
इंद्रजीत की मृत्यु ने मेरे मनोबल पर ऐसा वार किया
उस क्षण मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कार दिया
स्वर्ण महल के सुख भोग अपनों जरूरत में त्याग दिया
जिन्के लिया जला था ज्योत बन
उन्होंने हो अंधदेरों में अकेला किया
रघुनंदन तुम्हारी महानता अब समझा आई है
तुमने मेरी खुद से एक नई पहचान कराई है
जगत ने मेरे अभिमान ठुकराया
तुमने ज्ञान स्वीकारा था
तुमसे ही सीख कर अपनों के छल को क्षमा कर पाया था
अब अंत में अफसोस की जो मंदोदरी को दुख पहुंचाया था
और क्षमा सुलोचना की मेघनाथ से त्याग करवाया था।
