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Suresh Koundal

Abstract Classics

4.8  

Suresh Koundal

Abstract Classics

बन्द मुट्ठी में ख़्वाब

बन्द मुट्ठी में ख़्वाब

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बन्द मुट्ठी कर इस जहां में आया

लेटा रहा और रोता रहा

कुछ न था उस मुट्ठी के अंदर

बन्द करके यूँ मैं बैठा रहा 


कुछ सपने समेटे थे इसमें 

ये भरम दबाए बैठा रहा 

होंगे मुकम्मल एक दिन ज़रूर 

ये ख्वाब सजाए बैठा रहा


नफरतों से भरी इस दुनिया में 

जी भर कर प्यार लुटाता रहा

धोखे मिले पग पग पर फिर भी

साथ हमेशा निभाता रहा 


कोशिश में था निभ जाएं रिश्ते

पल पल ठोकर खाता रहा

गुलाब जैसी खुशियाँ थी मुट्ठी भर

उन पंखुड़ियों को बिखराता रहा 


रिश्ते तो थे महल रेत के 

कहीं बिखरें ना, यूँ तूफानों से टकराता रहा 

कोई तो आएगा रहने इस दिल में 

मैं रेत के घरौंदे बनाता रहा 


वक्त का पहिया चलता रहा और 

उन घरौंदों को रेत में मिलाता रहा 

कल के बाद फिर कल होगा 

मिलना और खोना हर पल होगा 


मैं फिर बन्द मुट्ठी में ये ख्वाब दबाता रहा

बदलेगा मंज़र नई सुबह दमकेगी

मन में ये विश्वास जगाता रहा।


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