दर्पण
दर्पण
याद है वो ज़माना भी,
जब पितरों का भी आदर किया जाता था,
कुशा पर बैठ कुशा की उंगल पहन,
श्राद्ध में पितरों का तर्पण किया जाता था,
समय की रफ़्तार तो देखो,
सुईयाँ आगे निकल गयी,
सुईयों की रफ़्तार में,
आह दबकर रह गयी,
बिन पानी मछली के जैसे,
माँ - बाप तड़पते रहते हैं,
दो-पल कोई आकर बैठे,
यही गणना करते रहते हैं,
वो ज़माना बहुत अच्छा था,
जब संग में बच्चें रहते थे,
कुछ हमारी सुनते,
कुछ अपनी कहते थे,
पोता - पोती दादा - दादी के
आंचल की,
छाया में पल जाते थे,
तोतली भाषा में बातें करके,
वो अपना मन बहलाते थे,
घने बरगद के पेड़ के जैसे,
वो अपनी शाखाओं को
देख इतराते थे,
फूले नहीं समाते भईया,
घर - आँगन मुस्काते थे,
कोल्हू के बैल के जैसे,
दिन - रात पिले रहते हैं,
माँ- बाप के सानिध्य की
जरूरत नहीं,
नोट गिनते रहते हैं,
लक्ष्मी की हवस में,
रिश्ते कहीं खो गये,
जीवन - मूल्य रेत के,
घरौंदे बन ढह गये,
माँ - बाप ने जितना दिया,
एक अंश नहीं कर पायेंगे,
अन्त समय जब वो जायेंगे,
सुये की तरह फ़िर धुन - धुन
पछतायेंगे ,
जीते - जी फ़जीति करते,
मरने पर वो रोते हैं,
गिरगिट जैसे रँग बदलते,
मगरमच्छी आँसू बहते हैं,
मौत पे आडंबरों की ज़रूरत नहीं,
नेक कमाई कर लो तुम,
माँ - बाप की पंगात बैठ,
उनके मन की सुन लो तुम,
ब्राह्मण भोज मत करवाना,
शैय्या दान मत करवाना,
गरुड़ पुराण मत बचवाना,
हरिद्वार मत पहुँचाना,
ये तो मात्र दिखावा है,
जीते - जी तीर्थ और
भोज करवा दो,
यही गरुड़ पुराण, हरिद्वार,
ब्राह्मण भोज,
"शकुन" शैय्या दान हमारा हैं !!
