STORYMIRROR

Amit Kumar

Tragedy

4  

Amit Kumar

Tragedy

दर्द की रोटियां

दर्द की रोटियां

1 min
339


वक़्त की आंच पर

सिक रही हैं

दर्द की रोटियां

वक़्त की आंच पर

सिक रही हैं

दर्द की रोटियां

बढ़ रहा है प्रदूषण

पानी हो रहा है कम

मंडरा रहा है चारों और

ग्लोबलवार्मिंग का संकट

सब उलझे हैं धर्मवाद

भाषावाद और अनगिनत आडम्बरों में

इंसान निगल रहा है

काग़ज़ के टुकड़े

कुत्ते नौंच रहे है इंसानी बोटियाँ

वक़्त की आंच पर

सिक रही हैं

दर्द की रोटियां

मस्त हैं सब अपने-अपने

स्वार्थी खोखले निर्वाण में

अधिकारों की लड़ाई में

मशीनरी सुनवाई में

तकनीक ने सबको दे दिया है मोबाइल

जिसने सोख लिया बचपन का ग्राउंड

और सभी रिश्तें बलिदान हो गए 

इसके एप्लीकेशन के 

हैंगओवर की भेंट

चाट रहा है जो बच गएअपने अहंकार के

धूर्त और मूर्त रूप को 

बेचारा आउट हो चुका है 

अपने ही ज़मीर से

ईमानदारी की पहली ही बोल पर

जहां तहां बस रह गई है

खेलने को इसके चंद ख़्याली गोटियां

वक़्त की आंच पर 

सिक रही है

दर्द की रोटियां।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy