दर्द की रोटियां
दर्द की रोटियां
वक़्त की आंच पर
सिक रही हैं
दर्द की रोटियां
वक़्त की आंच पर
सिक रही हैं
दर्द की रोटियां
बढ़ रहा है प्रदूषण
पानी हो रहा है कम
मंडरा रहा है चारों और
ग्लोबलवार्मिंग का संकट
सब उलझे हैं धर्मवाद
भाषावाद और अनगिनत आडम्बरों में
इंसान निगल रहा है
काग़ज़ के टुकड़े
कुत्ते नौंच रहे है इंसानी बोटियाँ
वक़्त की आंच पर
सिक रही हैं
दर्द की रोटियां
मस्त हैं सब अपने-अपने
स्वार्थी खोखले निर्वाण में
अधिकारों की लड़ाई में
मशीनरी सुनवाई में
तकनीक ने सबको दे दिया है मोबाइल
जिसने सोख लिया बचपन का ग्राउंड
और सभी रिश्तें बलिदान हो गए
इसके एप्लीकेशन के
हैंगओवर की भेंट
चाट रहा है जो बच गएअपने अहंकार के
धूर्त और मूर्त रूप को
बेचारा आउट हो चुका है
अपने ही ज़मीर से
ईमानदारी की पहली ही बोल पर
जहां तहां बस रह गई है
खेलने को इसके चंद ख़्याली गोटियां
वक़्त की आंच पर
सिक रही है
दर्द की रोटियां।
