दोस्त कुछ दुश्मन से
दोस्त कुछ दुश्मन से
जो था कभी जिगर का वो टुकड़ा नहीं रहा।
दोस्त कुछ दुश्मन से मिल के दोस्त नहीं रहा।
वैसे सफेद पोश हो वो आदमी भले।
दिल में रखा जो मैल तो उजला नहीं रहा।
अंजाम अपना देख के पछताया खूब वो।
तबदीलियों का बाद में मौका नहीं रहा।
हालात इतने बिगड़े कि गुम होश हो गए।
आँखों में फिर हसीन वो सपना नहीं रहा।
दुख दर्द से निजात कभी मिल नहीं सकी।
अपना नसीब भी तो कुछ अच्छा नहीं रहा।
गुलशन का हाल देख दुखी तितलियाँ हुईं।
काँटों में फूल एक भी महका नहीं रहा।
कश्यप जो बेगुनाह था उस को सजा मिली।
मुंसिफ पे अब किसी को भरोसा नहीं रहा।
