दिव्य-प्रेमी
दिव्य-प्रेमी
पूनम की रात, नीले आकाश पर
चॉंदनी का चंदोवा तना है,
चंदोवे तले नन्हें सितारे सोये पड़े हैं
पारिजात की सुगन्ध से महकी हवायें
पूनम के चाँद को उन्मत्त करती है
और तभी,
चाँदी से सजी हुई चाँदनी
हौले-हौले आकाश से उतरती है
निर्मिमेष दृष्टि से चन्द्रमा को तकती है
दो शाश्वत प्रेमियों की दृष्टि मिलती है
अलौकिक प्रेम की सृष्टि करती है
शीतल एकांत उत्तेजना बढ़ता है
प्यासे दो प्रेमियों का मिलन हो जाता है
चाँद के आलिंगन में चांँदनी खो जाती है
एकटक चाँद का मुखड़ा निहारती है
दोनों के तन के अस्तित्व मिटते हैं
दिव्य इस प्रेम से जल-थल चमकते हैं
रात के मधुर पल, क्षण में गुज़रते हैं
उषा के डर से ये प्रेमी बिछड़ते हैं
सुबह चाँदनी के फूल, कुछ नम से मिलते हैं
प्रकृति का नियम है
हर रात के बाद, भोर आती है
प्रेमियों के बिछोह के
रक्त भरे आँसुओं से,
आकाश रक्तिम हो जाता है
और सूरज का चमकता गोला
आसमान पर आता है,
नर्म ओस की बूँदें सूखा देता है
दिव्य उस प्रेम के, चिह्न मिटाता है
अपने तेज से तपाता है
धरती-आकाश को...

