दिनकर
दिनकर
दिनकर तुम कहाँ हो,
फिर से अवतरित क्यों नहीं होते ?
जानता हूँ, अपनों से नाराज होगे !
रात में छत पर घूम -घूम कर
पढ़ता हूँ जब तुम्हें,
याद करता हूँ तुम्हें ?
कर्ण के चरित्र का उद्धार,
जयप्रकाश का गुणगान,
कौन करेगा अब ?
संसद की बहस में,
जनता की रैलियों में,
तुम्हारा उपयोग करते हैं सब !
दुखी हूँ, कुछ लोगों ने
तुम्हें भूमिहार बना डाला,
तुम तो भूमिहीनों की आवाज़ थे,
शोषितों के संबल !
राज्य सभा में रहकर
राज सत्ता के विरुद्ध
हुंकार भरनेवाले,
हे राष्ट्रकवि, हे दिनकर !
मैं तुम्हें पुकार रहा,
अब कुरुक्षेत्र का धर्म युद्ध नहीं,
छुपकर वार करता है दुर्योधन।
रात के अंधेरे में, धोखे से,
कांड करता है - जयद्रथ।
बारा- सेनारी जैसे नरसंहार ,
करवाकर अटहास करता है -जरासंध।
आश्वस्त करता है हत्यारों को,
कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता
तुम्हारा।
जेल से सरकार चलाऊँगा,
बर्थ-डे भी मनाऊँगा ।
न्याय भी खरीद लूँगा ।
अन्याय के विरुद्ध, संघर्ष का बिगुल,
फूंकने वाले शब्द नहीं हैं अब।
जब शब्द कमजोर पड़ रहें हों
तुम्हारी याद, तुम्हारी अनुपस्थिति
बिंध रही हैं मुझे।
क्योंकि शाम हो गयी है,
थोड़ी देर में घना अंधकार,
छानेवाला है।
मिल गए हैं फिर से दोनों,
जंगलराज, लगता है वापस आनेवाला है।