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Preshit Gajbhiye

Abstract

4.6  

Preshit Gajbhiye

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दिल से चाहा होगा किसी ने ..

दिल से चाहा होगा किसी ने ..

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दिल से चाहा होगा किसी ने ,

तब कहीं जा कर यह दीवार टूटी है ..

एक तिनका भी बचा नहीं पाया मै ,

उसने बड़ी फुरसत से यह दुकान लूटी है ..


जब शहर छोड़ने का इरादा बनाकर निकला था घर से ,

ऐसा कोई नहीं दिखा वहां जिसकी शक्ल ज़रा सी भी उतरी है ..

मेरे जाने का ना किसी को अफ़सोस था और ना ही गम ,

इस बड़े-से शहर से ऐसी बहुत सी बातें सीखी है ..


गांव से कोई पहली बार आ रहा था इस शहर में ,

शायद स्टेशन पर उसने सपने दिखाने वाली किताबें पढ़ी है ..

और एक उधर गांव लौटने वाले राहगीर परेशान थे की ,

चलती क्यों नही है ये रेल एक स्टेशन पर कब से खड़ी है ..


आखिर कोई बगैर टिकट ही चढ़ गया रेल में ,

और 'मेरी' किसी के इंतजार में छूटी है ..

लौट कर जाता भी तो क्या मुंह दिखाता अपनों को ,

शहर जाने की ज़िद में लोगों की खरी-खोटी भी तो सुनी है ..



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