दिल-ए-नादान
दिल-ए-नादान
दिल तू एक बार फिर वही खता कर बैठा है
उस अंजान को तू अपना सब कुछ दे बैठा है
जानती हूँ तू उस दिमाग की तरह यू खेल नही खेलता
पर उन जज़बातों के आड़े आ कर खुद को अकेला कर बैठा है
उस शख्स को कदर नही है तेरी
फिर क्यों तू खुद पर झूठा यकीन कर बैठा है
जब सच जनता है कि वो तेरा नही
न जाने क्यों उसकी यादों को अन्दर समाए बैठा है
कदर होती उसको तेरी तो वक़्त निकलता वो भी
तू यूँ ही उससे मिलने की आस लिए बैठा है
ईशारा काफी होता हूं दिल-ए-नादान समझने को
क्यों वो मोहब्बत की पट्टी इन आँखों मे लगाए बैठा है
कर ले तू हज़ारो जतन वो होगा नही तेरा
वो तो पहले ही किसी और को अपना सनम बनाये बैठा है
दिल तू एक बार फिर वही खता कर बैठा है
उस अंजान को तू अपना सब कुछ दे बैठा है!