दिल ढूढ़ता है
दिल ढूढ़ता है
दिल ढूंढता फिर रहा उसे
जो परछाई बन नहीं ,
मेरे साथ चल सके ,
कभी ख़ामोश हूँ अगर
तो मेरी आवाज़ बन सके।
कभी अपने हाथों को
मेरे सिरहाने की तकिया बना सके ,
अग़र देर तलक जग जाऊं तो
अपनी भी नींदे उड़ा सके ।
मेरे हँसने व रोने में
खुद को शामिल कर सके,
मेरे दुःख - सुख के पैमाने में
ख़ुद को छलका सके।
मेरी सुबह की ताज़गी और
शाम की खूबसूरती बन सके ,
मेरे बेचैन पलों का
वो सुकून बन सके।
मेरे रूठने पर
मनाने की कोशिशें कर सके ,
कभी बिन बोले ही
बातों पर ग़ौर कर सके।
हजार वादे न करके
बस साथ दे सके ,
घर जंगल में सही
बस महफ़ूज रख सके ।
ऐसी ख्वाइशें सिर्फ़ मैं उससे नहीं
वो उम्मीदें मुझसे भी कर सके ,
दिल ढूढ़ता फिर रहा उसे
जो परछाई बन नही ,
मेरे साथ चल सके ।

