दिखते नहीं परिंदे
दिखते नहीं परिंदे
दिखते नहीं परिंदे उन दरख्तों की शाखों पर।
नाजिल हुआ है कैसा कहर तुम्हारें मकानों पर।।1।।
वीरानियां ही वीरानियां है हर सम्त ही शहर में।
ऐसा क्या गजब हुआ यहां के सारे ठिकानों पर।।2।।
राख ही राख है बस्ती के हर जर्रे-जर्रे में यहां।
आग है ये कैसे लगी सबके खेत खलिहानों पर।।3।।
तुमको तो सब मिला था वसीले में रसूल के।
फिर कैसे तुम सब आ गये अजाबे निशानों पर।।4।।
मुब्तिला हुऐ हो शायद सब कबीरा गुनाहो में।
वरना होता नहीं अजाब मुहम्मद के दीवानों पर।।5।।
उसको खबर है सबकी वह जानता है सबको।
उसके फरिश्ते मुश्तैद है हर शख्स के शानो पर।।6।।
