धूप-छांव
धूप-छांव
कहीं धूप है तो कहीं छाया है
जिंदगी को भला कौन समझ पाया है
कहीं जन्म है तो कहीं मृत्यु
कर्मों की गति कौन समझ पाया है
कहीं पतझड़ है तो कहीं है बसंत
ये कुदरत की ही तो माया है
ये जीवन सुख दुख की आंख मिचौनी है
इनसे भला कैसे कोई बच पाया है.