नजरबंद
नजरबंद
बीत गए ये महीने
मकान के चार दीवारों में,
तन्हा थी में शायद,
मगर मसरूफ जरूर थी मैं खुद में।
यूं लगने लगा था,
न जाने कैद हैं कितने अरसों से...
वक्त बीतेगा कब तक यूं अकेले,
डर गई थी इस खयाल से...
पर लम्हा गुजरता गया और
हमे इल्म ना रहा,
अब एहसाह हुआ इस दिल को
के हम चाहने लगे हैं खुद से।
ये बंदिशें भी अच्छी लगने लगी है,
अब तक वक्त भी कम पड़ने लगा है,
गुमान था थोड़ा पर अब यकीन हो चला है,
किसी की कमी अब हमे महसूस न होता है।