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Alpa Mehta

Abstract

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Alpa Mehta

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धूप और छाँव.. मिलन बसंत

धूप और छाँव.. मिलन बसंत

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महफिल ऋतुओं की,

आज सजी हुई है..

अंबर पे आज जैसे,

कवाली गाई जा रही है..

ऋत एक कहे मे सृष्टि की सर्जनहार..

बोले दूजी मे तारणहार..

बहेज मे दोनों.. चुर हुई है..,

कौन महान.. उस बात पे लड़ रही है..

धूप कहे मे शर्द को भगाऊ..

हर सुबह को.. गगन मे दीप जलाऊ..

छाँव कहे मे मंद मंद पवन फैलाऊ..

चारो दिशाओ मे चाँदनी फैलाऊ..

हर बातो मे गज़ब ढा रही है..

बात मे एकदूजे को मात दे रही है..

.फिर आयी ऋत बसंत महेफिल मे..

बिच दोनों मे सुलह करवाने..

मे हु तुम दोनों का साथी..

आधी आधी जीत तुम्हारी..

ना धूप बिना मे खिल पाउ..

ना छाँव बिना मे सहेज पाउ..

मे ऋत बसंत कहलाऊ जग मे..

बिना तुम्हारे न ठहेर पाउ अंबर मे..

धूप छांव मधुर मिलन को आयी..

जब जब ऋत बसंत आयी..



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