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Kalyani Nanda

Abstract

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Kalyani Nanda

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धुएँ से लिपटी प्रकृति

धुएँ से लिपटी प्रकृति

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प्रकृति को ढूँढ रही है धरती

जो कभी खिल खिलाती थी

फूलों के साथ चहकती थी

पंछियों के साथ गुनगुनाती थी


हरियाली जिसे बहुत भाती थी

ना जाने वो प्रकृति आज कहाँ खो गयी ?

जिसे आज ढूँढ रही है धरती।


धुएँ में लिपटी धुआँ निगल रही थी

दम घुट रही थी उसकी दर्द से कराह रही थी

रोती हुई उसे देख रो पडी उसके साथ धरती

ना जाने कब से अकेली बैठी थी

वो खुबसूरत प्रकृति जिसे ढूँढ रही थी धरती ।


कट रहे है घने जंगल

बन रहे हैं कारखाने और इमारत

कारखाने की धुएँ से कराहते जीवन का घुंट ता है दम

पेड़ कट रहे हैं घोंसले बिखर रहे हैं

चिडि़िया हो रहे बेघर

खुबसूरत प्रकृति हो रही है बदसूरत ।


रो रही है प्रकृति रो रही है धरती हो जाओ सचेत

मत कर प्रकृति पर ये अत्याचार

अब भी है समय संभल जा हे मानव

संवार ले प्रकृति को संवार ले धरती का आंगन

हंस उठेगी प्रकृति खुशहाल हो जाएगा जीवन।


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