वह दिन कब आएगा
वह दिन कब आएगा


वह दिन कब आएगा...
वह दिन कब आएगा जब नारी
समानुभूति की अनुभूति से
हो कर सरोबार,
भर लेगी अपने आगोश में
दर्द हर नारी का
दुनिया भर की पीर समझने वाली
क्यों समझ न पाती वह पीर
जो है हमारे रीति रिवाजों की,
संस्कारों की देन!
खुद भी तो आई थी अबला बन
बहू के आते आते,
उभर आई सबला बन
भूल गई हर वह दर्द, आक्रोश
कुंठा जो खुद थी झेली!
भूल गई- अन्याय, पक्षपात
तानाशाही, कुंठा,लाचारी की परिभाषा
थोप दिए बेटे बेटी पर वही विचार
सही गलत की नींव रह गई खोखली !
वह
नारी जो, करे न दुश्मनी अपनों से
हर नारी उसे,न दिखे चुनौती सी
जो बेटे को आई उससे करने दूर
उसकी शुभचिंतक बन देगी उसे सहारा,
करेगी उसकी तरफ़दारी-
जब संस्कार,रीति रिवाज़ का दे हवाला
करेंगी न वह स्त्री जाति से गद्दारी !
संवेदनशीलता का समानुभूति का प्याला
भरेगा क्या कभी या रहेगा सदा ही खाली
कब समझेगी अपनी कमज़ोरियां
कब देगी तिलांजलि अपनी पुरानी सोच को
कब करेगी आज़ाद ख़ुद को, बहू बेटे को
उन बेड़ियों से जो खुलेंगी नहीं तब तक
जब तक बदलते आयामों का न करे
हर पीढ़ी, हर स्त्री पुरुष सम्मान !