धुआँ…
धुआँ…
जलता है कुछ तो, उठता है ये धुआँ
बुझता भी है तो, घुटता है यह धुआँ…
आँखों में कुछ दर्द सा, उमड़ता हुआ
बन के ज़िन्दगी का तज़ुर्बा, बरसता है ये धुआँ…
अपनी -अपनी राहें सबकी, मंजिल भी ज़ुदा
पर एक बात है सफर बन के, मुड़ता है ये धुआँ…
कोई एतबार और इख्तियार नहीं उनका
चल के साथ-साथ भी, बिछड़ता है ये धुआँ…
मेरे दिल को सुकून भी है, तुझसे ए कसक
होकर जुदा मुझसे किस तरहाँ, जलता है ये धुआँ…
‘अर्पिता’ की हसरत है कि अब खाक हो जाएं
जिस तरहाँ जल -जल के, ख़ाक होता है ये धुआँ…