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Devendra Singh

Abstract Tragedy

4.9  

Devendra Singh

Abstract Tragedy

बिकती कलम

बिकती कलम

1 min
385


मान बिका, सम्मान बिका है, घर का सब सामान बिका है

अभी तलक पुस्तक बिकती अब कवियों का ईमान बिका है


नेता की तारीफ करो तब नून, तेल और दाल मिलेगा

जो जितना गुणगान करेगा, उसको उतना माल मिलेगा


भांड छिपे बैठे हैं देखों, अब कवियों की खालों में

सिक्कों का ईंधन पड़ता है आज कलम की चालों में


कविता को स्थान नहीं है मंचों पर जुमले हावी हैं

सिसक-सिसक कर कविता रोती नयनों में सतलज - रावी हैं


जो जितने जुमले फेकेंगा, उसको उतना दाम मिलेगा

हां जी - हां जी करने वाले को मंचों पर काम मिलेगा

एक समय साहित्य दिखाता था हालात लाचारों की


आज हज़ूरी करके खुश है चोर और हत्यारों की

शब्द खोजते कविगण फिरते राजनीति के नालों में

सिक्कों का ईंधन पड़ता है आज कलम की चालों में।


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