झूठ
झूठ
झूठ बोलना पाप है
ऐसा सिखाया गया था मुझे
बड़ा हुआ तो
कुछ और नज़र आया
लपलपाती जुबानें
जिन पर सनी थी
चासनी झूठ की
रह रह कर लार
लपकाये जा रही थीं
बह-बह के जा रही थी
ये चासनी की मीठी, झूठी लार
लोग खड़े थे पंक्तियों में
इस लार को चाटने की
अपनी बारी का इंतजार करते
वो जिन्हें पसन्द न थी
इस लार को चाटने की क्रिया
वही तड़प रहे थे
सड़क के किनारे
भरी दोपहर में
मारे प्यास और भूंख के
कुछ तो मर गए
कुछ मरने वाले थे
तब जाके कुछ और
समझ मे आया मेरे
वो जो कहा था बाबू जी ने
वो जो कहा था माता जी ने
कि झूठ बोलना पाप है
वही तो सबसे बड़ा झूठ था
सत्य के बाग में आज भी
बीरानियत है,
यहाँ कल भी ठूंठ ही ठूंठ था।
